Friday 30 December 2011

दिनांक १-१-२०१२


नए वर्ष की नयी सुबह ..नया सूरज नयी रौशनी ..
यों तो आज भी रोज़ की तरह ही एक सुबह है ,पर नजरिया बदल गया है ...बायीं और लिखी जाने वाली दिनांक आज नए वर्ष का इशारा कर रही है..आज स्वागत  कर रही है उन ३६५ दिनों के नए साल का ..
चलिए नए सूरज से नयी ऊर्जा ले और एक दुसरे को विनम्रता से बोलें..
सुप्रभात .....नव वर्ष मंगलमय हो ..

Thursday 29 December 2011

नदिया की बूँदें

हर बूँद जो नदिया संग चलती है नहीं पा लेती सागर को 
कुछ कमंडल  में साधू के ,तो कुछ अंजुली में तर्पण को 
कुछ चाहत बन कर अमृत की ,खो जाती अपनों ही में 
कुछ चढ़ती  चरणों में ,तो कुछ संतों की संगती में 


ख्वाइश होती हर इक बूँद की खो जाने को सागर में  
पर राह में कंटक बन छिटक जाती निर्मम वन में 
सूर्य की  किरणों में ज्यों सो जाती आलस्य में 
जहां  से चली थी पहुँच जाती  वहीँ दुर्भाग्य में 


बूंदों का क्या है , समझौते हैं  नदिया से
साथ चलकर करने मिलन दरिया से 
छिटकी हुई बूंदे भी भाग्य पर इठलायेंगी 
क्यूंकि नदिया की धारा तब 'खारी 'कहलायेंगी 



Wednesday 28 December 2011

कलम

शब्द जुबां के  मोहताज़ नहीं हैं ..ये तो कलम के फ़रिश्ते हैं..
बिन बोले ही ह्रदय की संवेदनाओं को परत दर परत उतार देतें हैं प्रष्ठ्भूमी पर ,अलंकृत कर देतें हैं उस बेरंगीन किताब के असंख्य पन्ने ..और बनते हैं कितने ही मन की जुबां..
ये कलम की रोशनाई नहीं ,दिल में बैठी हुई आत्मा का प्रतिबिम्ब है..जिन शब्दों के एहसास को जुबां कभी भी समझा नहीं सकती ,वो शब्द कलम की जुबा से कितनी तेज़ी से दिलों पर राज़ कर लेते हैं ,उसकी गवाही देतीं हैं वो असंख्य किताबें जिन्हें पढ़ के कितने ही लोगो ने अपना मार्गदर्शन किया है..
मुश्किल परिस्थतियों में जुबां की आवाज का अभिप्राय समझ पाने  का बल मष्तिस्क खो देता है ,तब प्यारी सी चिट्ठी वो काम कर देती है जो सोचा भी नहीं जा सकता..कलम की ताकत तो तलवार से भी अधिक है..
गीत संगीत की रचना से लेकर महान उपनिषद वेद व कितने ही चलचित्रों की कहानियां इस कलम की कोख में जनम लेती हैं..
लेखक से विश्वास की डोर से बंधी होती है कलम ,उसका जीवन होती है कलम,इत्रदान में ज्यों इत्र सुगंध बिखेरता  है ,उसी प्रकार कलम रुपी इत्रदान अपने शब्दों की सुगंध चहु ओर बिखेरते हैं..कलम विश्वास व सच्चाई की प्रतीक है ,ये अनगिनत वर्षों से मनुष्य की साथी बनकर उसे निरंतर अग्रसर रहने  व जीवन में समर्पण के  भाव से रूबरू कराती है 
इसीलिए न्यायाधीश के हाथों फांसी का सन्देश लिखने के बाद ,दुःख और संताप से वो  खुद को पहले समाप्त कर देती है..
है इसके सामान जीवन किसीका..

मैं मालन तेरी बन जाऊं ..

मैं मालन तेरी बन जाऊं 
नित नए पुष्पों का हार बनाऊ 
बड़े प्यार से तुम्हे सजाऊ
मैं मालन तेरी बन जाऊं 

चुन चुन के कलियाँ लाऊँ बागों से 
हर खुशबु में मैं बस जाऊं 
दमके जो शशि पर तुम्हारे 
ऐसा कोई हार बनाऊँ 
मैं मालन ....

आते जाते भक्तों को तुम्हरे 
पुष्पहार मैं पकडाऊँ
पड़ी तुम्हारे दर पे मैं 
भाग्य पर इठलाऊँ 
मैं मालन .....

ये हार नहीं हैं भाव हैं मेरे 
मन के डोरों में हैं पिरे 
एक पुष्पहार से अपना प्यार 
कैसे मैं तुमको दिखलाऊँ 
मैं मालन ....

तुम्हे समर्पित जीवन मेरा 
मैं कैसा पुष्पहार बनाऊँ ?
काश ! बाहें डाल तुम्हारे 
मैं स्वयं हार बन जाऊं 
मैं मालन तेरी बन जाऊं ..

Monday 26 December 2011

उलझन


यादों के धूमिल पलछिन को 
वादों के गिनगिन उन दिन को 
प्यार भरे उन अफ्सानो को 
मैं भूलूँ  या न भूलूँ  


संग उनके बिखरे सपनों को 
कुछ गैरों  को कुछ अपनों को 
शत्रंजों की उन चालों को 
मैं खेलूँ या न खेलूँ 


 जो जब चाहा मौन रहा 
जिसने जब चाह 'गौण' कहा
उनके डगमग हिंडोलों में 
मैं झूलूँ  या न झूलूँ 


ऊंचा उड़ने की ख्वाइश है 
रब से कुछ फरमाइश हैं
इन्द्रधनुष ,गगन में उड़के
मैं छु लूं या न छु लूं 



दिल कहता है भर जायेंगी 
आशाएं अब घर आयेंगी 
मन की उन हसरतों को 
मैं पा लूं या न पा लूं ..
:)

Saturday 24 December 2011

शान्ति

पाप पुण्य में डूबे जब तब खोज रहे मन की शान्ति को 
अब न समझे थे न तब समझे थे ,
भटक रहे जिस अनसुलझी भ्रान्ति को..
न मन से हैं न तन से हैं ,न अपनों के न गैरों के 
फिर भी खोज रहे अपनेपन को 
शुरू करें और खुद अपनेपर ही ख़तम करें..
ये स्वार्थ के अनुयायी ,अपनी ही अभिव्यक्ति को 
जिस राह चलें उस पर ही रुक जाएँ 
चलते चलते भटक जाएँ ,फिर अटके कभी लटक जाएँ 
अटके अटके ही चिल्लाएं 
शान्ति शान्ति शान्ति को 
नहीं मिलेगी नहीं मिलेगी , यु दिए की लौ नहीं जलेगी
राह कठिन है परिश्रम है.., वहाँ मिथ्या है भ्रम है..
जब अपनों को अपनाओगे 
शान्ति वहीँ पा जाओगे..

Friday 23 December 2011

ज़िन्दगी के सवाल



ज़िंदगी तू मुझसे कभी सवाल ना करना, 
गाहे बगाहे जो किए हमने उनका ख़याल ना करना.. 

तू तो चली आ रही , कबसे .. 
मेरी एक ही है .. 
कभी अनजाने चोट दी हो  
तो उनका मलाल ना करना 
ज़िंदगी तू मुझसे.... 

तारों की चाहत में,रातों को खोकर 
सुबह को भूल जाने का
ख़याल ना करना 
ज़िंदगी तू मुझसे.. 

मैं इंसान हूँ ,तू ज़िंदगी है.. 
तेरा इंतेहाँ ना दे पाऊँ  
तो कोई कमाल ना करना.. 
ज़िंदगी तू मुझसे.. 

फ़िक्र हमे है,रास्ते है ,पगडंडी है.. 
उन रास्तों पे खो जाएँ तो 
हमीं पे एहसान करना .. 
ज़िंदगी तू मुझसे.. 

तेरे सवालों पे जो हम रो देंगे, 
रो कर टूट जाएँ तो 
तू इतना प्यार करना .. 
ज़िंदगी तू मुझसे कभी सवाल ना करना.. 
गाहे बगाहे जो किए हमने उनका ख़याल ना करना.. 

छाँव

जहां तू बसे ,जो हो प्यारा मनोहर ,
मुझे ऐसी धरती ,ऐसा गाँव दे दो ,
उस घने पीपल की घनी पत्तियों से 
मुझे मेरे हिस्से की छाँव दे दो 


जो थिरके तुम्हारी ही 
सुमधुर धुन पर 
मुझे ऐसे पावन पाँव दे दो 
वो सुन्दर सी  पीली ओढ़नि में 
मुझे मेरे हिस्से की छाँव दे दो 


तुम्ही में रहूँ ,मैं तुम्ही में बसूँ
मुझे ऐसे कोमल भाव दे दो 
 उठती गिरती घनी पलकों में से 
मुझे मेरे हिस्से की छाँव दे दो 


लम्बा सफ़र है, जाना है पार 
मुझे ऐसा नाविक ,ऐसी नाव दे दो 
तुम्हारे ही आँचल में सो कर न उठूँ
मुझे ऐसे आँचल की छाँव दे दो 

Wednesday 21 December 2011

आज मन बागीचा है..

तितलियाँ मन के रंगों की 
उड़ रही मधु की धुन में 
आज मन बागीचा है 
भ्रमरों की गुनगुन में 


वो पवन ने गुदगुदा के 
सागर को भी हंसा दिया 
देखो लहरें कर रही अटखेलियाँ 
मदमस्त जलतरंग में 
आज मन बागीचा है 
भ्रमरों की गुनगुन में 


सूर्य की सिन्दूरी आभा से 
कनक रंग धरती दमके 
आँचल में ज्यों भरे आभूषण 
किरणों के रजबन में 
आज मन बागीचा है 
भ्रमरों की गुनगुन में 


पग में घुँघरू बाँध ज्यों 
बरखा ऋतू नाच रही 
सांवरी छतरी तले जैसे 
मेरे मन को भांप रही
 इन्द्रधनुष बनी हूँ 
तन के इस उपवन में 
आज मन बागीचा है
 भ्रमरों की गुनगुन में..

फूल है गेंदे का

लिपटी हों जैसे धुप की सहर्ष किरणे
और बंधा हो जैसे चोटी में प्यारा सा फुंदना 
ऐसा सुन्दर फूल है गेंदे का  


महकती डालियों पे नित डोले 
बसंती छठा में बसंत रंग घोले 
टेसू के फूलों से भी ज्यादा पीला 
ऐसा सुन्दर फूल है गेंदे का 


हजारी ,संतरी ,तितलिय और पीला 
देवों का प्रिय ,मनमोहक रंगीला 
सुन्दर उपवन ,बसंत बना नशीला 
ऐसा सुन्दर फूल है गेंदे का..

Tuesday 20 December 2011

परोपकार

एक पेड़ कितने परोपकार का जीवन जीता है ,यह शब्दों में  बयान कर पाना अति कठिन है...एक सादगी भरा जीवन ,सहनशक्ति से परिपूर्ण ,और दूसरों के लिए खुद को न्योछावर कर देना ,ये सब एक वृक्ष सिखाता है..
क्या जीवन है ..!
अपने लिए कुछ नहीं ,निम्न पदार्धों से अपने जीवन की पूर्ती करते हुए वह हमें असंख्य रूपों में संजीवनी प्रदान करते हैं..सदाचार का चोला पहने ,बाहों में कितने ही जीवन को संजोये ये वृक्ष अपने आँचल से हमें स्नेहमयी ममता की अनुभूति देते हैं..परम सौभाग्यशाली हैं वे ,जिन्हें वृक्षों का आँचल नसीब होता है..जब मस्त पवन के झोंके बहते हैं तो ये सुमधुर लय से क्रीडा करते हैं..इनके जैसा मनभावन आदर्श, योग्य कोई नहीं ,इनके समकक्ष जीवन जी पाना कठिन ही नहीं नामुमकिन है ..
मात्र जल व वायु के भोजन से कभी ये हमें पुष्पों से तो कभी रसभरे फल देकर  हमें 'सिर्फ देना है ,लेना कुछ भी नहीं' का अर्थ समझाते हैं..
आज अपने आँगन में लगे केले के पेड़ से जब मैंने फल खाया तो आनंद से नेत्र अश्रित  हो गए..
हमारे जीवन में हम कितनी अपेक्षाएं रखते हैं ,कितने व्यवाहर का रास्ता तकते हैं और अपने कर्तव्यों को अक्सर अनदेखा कर देते हैं ..
और ये वृक्ष ..इसे तो बस मैं सिर्फ पानी देती हूँ ,शेष तो वो खुद ही ले लेता है ,और वापसी में उसने मुझे गुच्छा भर के फल दिए..!
जिन्हें मैंने न सिर्फ अपने परिवार में अपितु मित्रों में भी बाटां..
महान हैं ये ..इनके जीवन को कोटि कोटि प्रणाम व वंदन..!

Monday 19 December 2011

कोशिश

पर्वतों से निकलती टेढ़ी मेढ़ी धारा से 
                                     मैं श्वेत निर्मल नदी सी बहुंगी 
ऊँचे नीचे ,पथरीले ,रास्तों से गुज़र के 
                                    मैं समतल  चलने की कोशिश करुँगी 


साथ पुष्पों के कांटे भी होते हैं अक्सर 
                                   मैं पुष्प बनकर सुगन्धित करती रहूंगी 
जो मसलकर तोड़ डालेगा कोई 
                                  तो वही हाथ महकाने की कोशिश करुँगी 


जो रूठे मनाऊँ ,अगर फिर रूठ जाएँ 
                                 तो फिर से मानाने की कोशिश करूंगी 
इतनी शक्ति मुझे दोगे जो  मेरे साईं 
                                 तो सदा जोड़ने की मैं कोशिश करूंगी 

Sunday 18 December 2011

ज़रुरत

गुजरी अकेले ही जब बर्फीली रातें 
 न दे पाएंगी गर्माइश ,अब तुम्हारी ये बातें 
प्यार से फेरते सर पर  अब हाथ ....तो 
रहने दो, मुझको ज़रुरत नहीं है ..


थकी दोपहरी प्यास से तड़फते 
आस थी मेघ तुम आते और बरसते 
अब बना रहे सरोवर बेहिसाब ...तो 
रहने दो, मुझको ज़रुरत नहीं है ..


मौसम बसंती ,फूल थे सब बसंत 
एक गेंदे का गजरा तुम्हारे हाथों से बंध
अब राहे फूलों की बिछाई हैं ..तो 
रहने दो , मुझको ज़रुरत नहीं है ..


उम्र गुजरी तुम्हे मूर्तियों में ही तकते 
चाहा था तुम आते पलक झपकते 
अब आये जब हमीं में नहीं सांस ..तो 
रहने दो, मुझको ज़रुरत नहीं है..

आवरण

आँखों के सामने असंख्य पुस्तकों का मेला लगा था..सब सस्ते दामों पर  मिल रही थी , कौनसी लूं? ..प्रश्नचिन्ह था..मन चाह रहा था की कोई आकर्षक सी लगने वाली मोटी सी किताब ले लेते हैं..पर फिर ख़याल आया की पता नहीं उस आकर्षक आवरण के अन्दर क्या होगा..?
 भीड़ में, कितनी ही  पुस्तकों को उठा उठा कर समीक्षा की होगी, पर मन को कोई नहीं भाई ..उनका सस्ता मूल्य भी बेकार था हमारे लिए..कैसी परिस्थिति है ?..न जाने  क्यों पुस्स्तकें अजनबियों की तरह बिखरी पड़ी थी और में उनके सामने महामूर्ख की भाँती खड़ी थी ..
सच्चाई से कोई छिप नहीं सकता ..
ये पुस्तकें आइना दिखा रही थी हमें.., की जिस प्रकार बाहरी आवरण से पुस्तक के प्रष्ठों का अनुमान नहीं लगाया  जा सकता ,उसी प्रकार ,मनुष्य के भी बाहरी रेहन सेहन से ये कदाचित तय कर पाना कठिन है की वो अन्दर से कैसा है ,उसकी आत्मा कैसी है..
सिर्फ उसी पुस्तक के बारे में हम पक्के तौर पर अपनी राय  दे सकते हैं जिसे पढ़ा हो..
सही भी  है ...
वही मनुष्य घर करता है ह्रदय में जिसे हमने पास से देखा हो ,.. पढ़ा हो..
थोड़ी सी कहानी पढने पर  भी आप किताब पूरी ख़तम कर पायेंगे ,ये मै पक्के तौर पे नहीं कह सकती ..
इसलिए आदमी को भी आधा अधूरा जान कर आप तय नहीं कर सकते के वो उम्र भर आपका साथ देगा या नहीं..
ढेर चाहे पुस्तकों का हो या मनुष्य का ...बाहरी चोला कभी भी आत्मा का प्रतिबिम्ब नहीं बन सकता..
मैंने लाख चाहा पर अपरिचित ढेर में से कोई परिचित किताब न मिली ...मिली तो उन्ही पंक्तियों में जिनके बारे में मैंने पहले से पढ़ा था..

Saturday 17 December 2011

सर्दी की बेरहम रात

रात भर करवटें बदलते रहे ,सरसराती हवा खिड़की की  झीनी सी बारी से आ रही थी ,लग रहा था जैसे हमारे अन्दर बर्फ की तलवार जा रही हो..रजाई इधर से संभालू कभी उधर से..सोने ही नहीं दे रही थी वो सर्दी..ऊपर से बाहर आने जाने वाली आवाजें...एक एक घंटे की खबर लग रही थी..आज तो जागरण होने वाला था..नहीं नहीं रतजगा ..कोशिश कर के एक झपकी आई भी तो फिर हडबडा के उठ बैठे..आज तो जान ही जायेगी ..बस अब और नहीं ..उठ कर इधर उधर के दो चक्कर लगाये..कोसा अपनाप को इस परिस्थिति के लिए...काश..!! ..कमसेकम शनिवार की रात इतनी बेरहमी से तो न बीतती ..एक शनिवार की रात का इंतज़ार छह दिनों से होता है ..उफ़ ..!!
अब कभी नहीं ..कभी नहीं ..गले के बारे में निश्चिन्त रहेंगे..इसे संभाल कर रखेंगे..क्यूंकि फांसी का फंदा बन कर जो आ जा रही थी बेहिसाब ......खांसी !!!
:) 

Friday 16 December 2011

यादें

कुछ बाँधी पुड़ियों में हैं ,कुछ जेबों में भर ली हैं ,
कुछ पन्नों में रख ली हैं ,कुछ जज़बातों में भर ली हैं


कुछ में शक्कर सी घुली है , कुछ आटे सी गुंध  रही  हैं ,
कुछ माचिस सी जलीं हैं ,कुछ कपूर सी सुगंध रहीं हैं


कुछ तकिये सी कोमल  हैं कुछ लिहाफ़ सी ओढ़ रखी  हैं
कुछ बिस्तरबंद संग बंधी हैं ,कुछ अभी भी वहीँ पड़ी हैं


ये यादें हैं अनजानी सी ,पर जानी कुछ पहचानी सी ,
कुछ बेबस ग़मों में लिपटी ,कुछ रंगों की मनमानी सी


ये कल से कल की मुलाकातें हैं ,कुछ मेरी कुछ तेरी सी
कुछ सुलझे अनसुलझे प्रश्न ,कुछ रैन सवेरे सी..


चाहत (from the archives-1989)

मैंने चाहा मै एक चिड़िया होती ,
उड़कर मैं आसमान को छूती ,
पेड़ों से मैं बातें करती 
पुष्पों को अपना मित्र बनाती 
मैं बस अनंत आकाश में उडती जाती ,उडती जाती 
न समय की चिंता ,न काल का डर
एक छोटे वृक्ष पे मैं बना अपना घर 
उडती जाती उडती जाती 
परन्तु अब है बन्धनों का डर 
अपनी ही जाती ,अपनों का डर 
चिड़िया मैं क्यों न बन पाती 
ये आस बस आस बन 
मन में रह जाती ,मन में रह जाती..


Thursday 15 December 2011

छाँव

जहां तू बसे ,जो हो प्यारा मनोहर ,
मुझे ऐसी धरती ,ऐसा गाँव दे दो ,
उस घने पीपल की घनी पत्तियों से 
मुझे मेरे हिस्से की छाँव दे दो 


जो थिरके सुमधुर तुम्हारी ही धुन पर 
मुझे ऐसे पावन पाँव दे दो 
वो सुन्दर सी  पीली ओढ़नि में 
मुझे मेरे हिस्से की छाँव दे दो 


तुम्ही में रहूँ ,मैं तुम्ही में बसूँ
मुझे ऐसे कोमल भाव दे दो 
 उठती गिरती घनी पलकों में से 
मुझे मेरे हिस्से की छाँव दे दो 


लम्बा सफ़र है, जाना है पार 
मुझे ऐसा नाविक ,ऐसी नाव दे दो 
तुम्हारे ही आँचल में सो कर न उठूँ
मुझे ऐसे आँचल की छाँव दे दो 

Tuesday 13 December 2011

बरसात

बरसात के बाद बादलों  से ढकी थी ज़मीन ,बूंदों की नमी से धरती ही नहीं मन भी नम हो गया था..टप टप बूँदें एक चमकती चांदनी सी पत्तों पे इठला रही थीं ,बड़े अल्हड़पन से चिड़ियें ,जैसे इतरा रही हों ,की प्रभु ने उनकी सुन ली ,इधर उधर डालियों पे फुदक रहीं थीं , दोपहर में ही मस्त शाम जैसा समा ,आनंदित कर रहा था..
बिनाबात ही किसी ने बरसात की तुलना नशीलेपन से नहीं की है ..
सांस लेते हुए परदे ,और फिज़ा में छाई  रंगीनियों से मन इन्द्रधनुष सा हुआ जा रहा था..
कितना मोहक समा था..एक आश्चर्य  है आसमान से बूंदों का प्रकट होना ..दिन के मध्य को मध्यम सी रौशनी ने अलग सी ओढ़नी उढ़ाई थी..बड़े कर्मठ बन बादलों का समूह किसी फौजी की सेना से कम नहीं था जैसे सीमा पर परेड करते हुए सिपाही..:) और गर्जाना के साथ सेनाध्यक्ष का पालन करते हुए..
मैं तो बस आनंद ले रही थी पानी में पड़ती बूँदें जैसे हाथ पकडके नाचती हुई समूह बनाती ,वैसे ही मेरे  मन का रोम रोम धन्यवाद दे रहा थे उस को जिसने रचा है ये सुमधुर नज़ारा ,उसको जिसने दिए हैं मुझे दो नेत्र भरलेने को ये द्रश्य अपने मन में ...हमेशा के लिए..

खोज

घट घट ,घट भर रहा 
तू फिर भी न डर रहा 
पल, पल पल मर रहा 
क्यों सोचे क्या अमर रहा 


भोग भोग, भोग में मगन रहा 
कभी ज़मी ,कभी गगन रहा 
योग,योग योग न भजन रहा 
अब सोचे जब मर रहा ?


दल ,दल दल में धंस रहा 
करनी तेरी तू फंस रहा 
कल कल कल करता रहा 
अपने ही पथ चलता रहा 


सोच ,सोच सोच को बदल 
आवरण से तू निकल 
खोज खोज खोज है  तुझीमें 
तेरी राह 'वो' तक  रहा ...

Saturday 10 December 2011

उलझन

यादों के धूमिल पलछिन को 
वादों के गिनगिन उन दिन को 
प्यार भरे उन अफ्सानो को 
मैं भूलूँ  या न भूलूँ  


संग उनके बिखरे सपनों को 
कुछ गैरों  को कुछ अपनों को 
शत्रंजों की उन चालों को 
मैं खेलूँ या न खेलूँ 


 जो जब चाहा मौन रहा 
जिसने जब चाह 'गौण' कहा
उनके डगमग हिंडोलों में 
मैं झूलूँ  या न झूलूँ 


ऊंचा उड़ने की ख्वाइश है 
रब से कुछ फरमाइश हैं
इन्द्रधनुष ,गगन में उड़के
मैं छु लूं या न छु लूं 



दिल कहता है भर जायेंगी 
आशाएं अब घर आयेंगी 
मन की उन हसरतों को 
मैं पा लूं या न पा लूं ..
:)

Friday 9 December 2011

पापा की कलम से..

कैसे  करूँ तारीफ़ ,मुझे शब्दों की कमी खलती है 
जो देखता हूँ पढता हूँ एक ख्वाब सी लगती है 
ज्ञान की गंगा का उद्गम कभी आसान नहीं होता 
मुझो मेरी बेटी माँ शारदे सी लगती है ..

पोछा

पड़ोसन की मेहरी ने फिर पोछा सामने वाले तार पर सुखाया था..पोछा क्या था पुराने कपड़ों के चिथड़े हो गए थे फर्श पर घिसता घिसते ,फिर भी मुह के सामने पड़ते थे ..साल भर रुकी थी उसे ये बात कहने को ..और परसों कह ही दिया की ज़रा दूसरी और सुखा दिया करो ..सामने दीखते हैं तो अच्छा नहीं लगता ..
पर शायद मेहरी से ज्यादा पड़ोसन को जिद थी पोंछे के कपड़ों को वहीँ सुखाने की..
नहीं मानी ,फिर उसी तार पर उन कपड़ों को फैला देख ,पोंछे से ज्यादा मेरा मन मैला हो गया..
क्या किसे के आग्रह का यही परिणाम है..
मनुष्य के जीवन में सामाजिकता नाम की चीज़ तो जैसे लुप्त ही हो गयी है..क्या स्वयं उन्हें नहीं लगता कि किन्ही दूसरे के घर के सामने अपने पोंछे सुखाना शर्म की बात है ..पर संकीर्ण मानसिकता जन्म देती है अक्खडपन को ,अहंकार को ..
कोई बात नहीं ..
पोंछा नहीं है ,वो उनकी स्वयं की आत्मा है ,जो मैली हो कर फैली रहती है कही ऐसे वैसे तार पर ,फिर अगली  सुबह घिसे जाने के लिए..उसे आभास नहीं, कि उसके मैलेपन की वजह से लोग उसे देखना नहीं पसंद करते ..
पोंछे के कपडे तो आज भी वहीँ लटके हैं पर मैंने फिर से , पलकों को आवरण बना लिया है ..

Thursday 8 December 2011

जोड़






                                                                 (चित्र गूगल से साभार )


टुकड़े टुकड़े बिखरे फर्श पर पड़ी ज़िन्दगी की हर एक परछाई ..बस जोड़ कर बन जाएगी एक छवि ,मनचाही ..ऐसे ही अंकित होगी एक उम्र ,जो गुज़र जायेगी उस संगीन राज़ को अंजाम देते देते ,जिसमे मखमली नाज़ुक पलों का जोड़ घटाव है और कभी उन कठोर क्षणों का कत्ल !
तहखाने में रखे प्यार को हर उम्र छु कर जायेगी पर उसे बेड़ियों से आज़ाद करने में वर्ष लग जायेंगे..और फिर आज़ादी मिलेगी भी तो कब...जब वो बूढा हो गया होगा..झुर्रियां होंगी उसके हाथों पर और स्नेह से गले लगाने पर उसके पुराने कपड़ो से गंध आएगी..
जिस्म हर पल अधेड़ हो रहा है ,पर मन अभी भी चंचल ,गिनतियों से बेखबर ..हौले से अपने उद्गार छलका ही देता है ..
आओ जोडें उन फर्श पर पड़े ज़िन्दगी की परछाइयों के टुकड़ों को ..बनाने एक सुन्दर ,अभूतपूर्व जिंदगानी ..
जिसमे हर वो मनचाहा पल हो ..और हो प्यार..बेड़ियों  से आज़ाद..!!!

Tuesday 6 December 2011

मंजिल

कभी सोये तो कभी जागते ही ख्वाब देखे ..
और फिर उन ख़्वाबों में मंजिलों के निशाँ देखे..
जब डूबी तन्हाइयों में कभी..
 तो रास्तों पे कई कारवां देखे ..
शौक से बढे तो अजनबी कर दिया 
कभी रुके तो सराबोर  गुलिस्तान देखे ..

आँखें ,स्वप्ना,मंजिल,रास्ते ,कारवां..सभी निश्छल मन की अभिव्यक्तियाँ हैं..कुछ हमकदम दोस्त हैं तो कुछ सिर्फ पल भर के साथी..उम्मीद हैं कुछ तो कुछ राही ..इन्ही से गुज़रते हैं तो स्वतः ही मन को आभास होता है की किस ओर जा रहा है वो ,छु लेगा वो आसमान को या फिर गिर के आगे बढ़ना होगा ,नाउम्मीद होकर थक हारकर बैठेगा ,या फिर आशा का दामन थाम के बढेगा और पायेगा मंजिलों के निशाँ ..
आशा और निराशा का चोली दामन का साथ है ..थकना हारने का निशाँ नहीं बल्कि आगे उठ खड़े होना है ..और अधिक बल से ,मेहेत्वकांषा से ..और पा जाना है अपनी बनायीं मंजिल को ..

शान्ति

पाप पुण्य में डूबे जब तब खोज रहे मन की शान्ति को 
अब न समझे थे न तब समझे थे ,
भटक रहे जिस अनसुलझी भ्रान्ति को..
न मन से हैं न तन से हैं ,न अपनों के न गैरों के 
फिर भी खोज रहे अपनेपन को 
शुरू करें और खुद अपनेपर ही ख़तम करें..
ये स्वार्थ के अनुयायी ,अपनी ही अभिव्यक्ति को 
जिस राह चलें उस पर ही रुक जाएँ 
चलते चलते भटक जाएँ ,फिर अटके कभी लटक जाएँ 
अटके अटके ही चिल्लाएं 
शान्ति शान्ति शान्ति को 
नहीं मिलेगी नहीं मिलेगी , यु दिए की लौ नहीं जलेगी
राह कठिन है परिश्रम है.., वहाँ मिथ्या है भ्रम है..
जब अपनों को अपनाओगे 
शान्ति वहीँ पा जाओगे..

Sunday 4 December 2011

सवाल


ज़िंदगी तू मुझसे कभी सवाल ना करना, 
गाहे बगाहे जो किए हमने उनका ख़याल ना करना.. 

तू तो चली आ रही , कबसे .. 
मेरी एक ही है .. 
कभी अनजाने चोट दी हो  
तो उनका मलाल ना करना 
ज़िंदगी तू मुझसे.... 

तारों की चाहत में,रातों को खोकर 
सुबह को भूल जाने का
ख़याल ना करना 
ज़िंदगी तू मुझसे.. 

मैं इंसान हूँ ,तू ज़िंदगी है.. 
तेरा इंतेहाँ ना दे पाऊँ  
तो कोई कमाल ना करना.. 
ज़िंदगी तू मुझसे.. 

फ़िक्र हमे है,रास्ते है ,पगडंडी है.. 
उन रास्तों पे खो जाएँ तो 
हमीं पे एहसान करना .. 
ज़िंदगी तू मुझसे.. 

तेरे सवालों पे जो हम रो देंगे, 
रो कर टूट जाएँ तो 
तू इतना प्यार करना .. 
ज़िंदगी तू मुझसे कभी सवाल ना करना.. 
गाहे बगाहे जो किए हमने उनका ख़याल ना करना.. 

Friday 2 December 2011

song of delight..

My throat..something was there..choking my words ..my feelings , and  suddenly the inadvertent tears cascaded through the sultry looks which i was trying to achieve...
It used to happen sometimes ,..
whenever i felt tied with the ropes of circumstances ,i felt short of words....and words without permission just paved their way through the feelings of heart..
Was this the me inside myself , always struggling ,conjuring towards the righteousness, of the epitome of worthiness ,of the society's various grudges.?.
My essence through which i always held goodness close to heart , felt brutally smothered on the butcher's table..
Was this which  i experience ,..a graph of the so called panache of life,or was i going through  a capability test ?
I could not understand ,how truth and reality were consistently driven for a  party to canards and cover ups .
My hope still sits strong,my feelings still motivated,and my heart stout and tenacious with a vigor..which consistently tells me that no matter how low and disheartened i may feel ,but songs of delight and adulation will be sung when the tempest will calm down..