Sunday, 18 December 2011

ज़रुरत

गुजरी अकेले ही जब बर्फीली रातें 
 न दे पाएंगी गर्माइश ,अब तुम्हारी ये बातें 
प्यार से फेरते सर पर  अब हाथ ....तो 
रहने दो, मुझको ज़रुरत नहीं है ..


थकी दोपहरी प्यास से तड़फते 
आस थी मेघ तुम आते और बरसते 
अब बना रहे सरोवर बेहिसाब ...तो 
रहने दो, मुझको ज़रुरत नहीं है ..


मौसम बसंती ,फूल थे सब बसंत 
एक गेंदे का गजरा तुम्हारे हाथों से बंध
अब राहे फूलों की बिछाई हैं ..तो 
रहने दो , मुझको ज़रुरत नहीं है ..


उम्र गुजरी तुम्हे मूर्तियों में ही तकते 
चाहा था तुम आते पलक झपकते 
अब आये जब हमीं में नहीं सांस ..तो 
रहने दो, मुझको ज़रुरत नहीं है..

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