मंजिल
कभी सोये तो कभी जागते ही ख्वाब देखे ..
और फिर उन ख़्वाबों में मंजिलों के निशाँ देखे..
जब डूबी तन्हाइयों में कभी..
तो रास्तों पे कई कारवां देखे ..
शौक से बढे तो अजनबी कर दिया
कभी रुके तो सराबोर गुलिस्तान देखे ..
आँखें ,स्वप्ना,मंजिल,रास्ते ,कारवां..सभी निश्छल मन की अभिव्यक्तियाँ हैं..कुछ हमकदम दोस्त हैं तो कुछ सिर्फ पल भर के साथी..उम्मीद हैं कुछ तो कुछ राही ..इन्ही से गुज़रते हैं तो स्वतः ही मन को आभास होता है की किस ओर जा रहा है वो ,छु लेगा वो आसमान को या फिर गिर के आगे बढ़ना होगा ,नाउम्मीद होकर थक हारकर बैठेगा ,या फिर आशा का दामन थाम के बढेगा और पायेगा मंजिलों के निशाँ ..
आशा और निराशा का चोली दामन का साथ है ..थकना हारने का निशाँ नहीं बल्कि आगे उठ खड़े होना है ..और अधिक बल से ,मेहेत्वकांषा से ..और पा जाना है अपनी बनायीं मंजिल को ..
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