शान्ति
पाप पुण्य में डूबे जब तब खोज रहे मन की शान्ति को
अब न समझे थे न तब समझे थे ,
भटक रहे जिस अनसुलझी भ्रान्ति को..
न मन से हैं न तन से हैं ,न अपनों के न गैरों के
फिर भी खोज रहे अपनेपन को
शुरू करें और खुद अपनेपर ही ख़तम करें..
ये स्वार्थ के अनुयायी ,अपनी ही अभिव्यक्ति को
जिस राह चलें उस पर ही रुक जाएँ
चलते चलते भटक जाएँ ,फिर अटके कभी लटक जाएँ
अटके अटके ही चिल्लाएं
शान्ति शान्ति शान्ति को
नहीं मिलेगी नहीं मिलेगी , यु दिए की लौ नहीं जलेगी
राह कठिन है परिश्रम है.., वहाँ मिथ्या है भ्रम है..
जब अपनों को अपनाओगे
शान्ति वहीँ पा जाओगे..
2 Comments:
रीतू बहुत सुन्दर कविता है।
सविता
thanks aunty..!! your words are an inspiration..!!
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