उलझन
यादों के धूमिल पलछिन को
वादों के गिनगिन उन दिन को
प्यार भरे उन अफ्सानो को
मैं भूलूँ या न भूलूँ
संग उनके बिखरे सपनों को
कुछ गैरों को कुछ अपनों को
शत्रंजों की उन चालों को
मैं खेलूँ या न खेलूँ
जो जब चाहा मौन रहा
जिसने जब चाह 'गौण' कहा
उनके डगमग हिंडोलों में
मैं झूलूँ या न झूलूँ
ऊंचा उड़ने की ख्वाइश है
रब से कुछ फरमाइश हैं
इन्द्रधनुष ,गगन में उड़के
मैं छु लूं या न छु लूं
दिल कहता है भर जायेंगी
आशाएं अब घर आयेंगी
मन की उन हसरतों को
मैं पा लूं या न पा लूं ..
:)
8 Comments:
उलझन को बखूबी लिखा है .. अच्छी प्रस्तुति
दिल कहता है भर जायेंगी
आशाएं अब घर आयेंगी
मन की उन हसरतों को
मैं पा लूं या न पा लूं ..
बेहद खूबसूरत।
सादर
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जो मेरा मन कहे पर आपका स्वागत है
मन को छूती रचना, वाह !!!!!
आज 21/02/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर (विभा रानी श्रीवास्तव जी की प्रस्तुति में) लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
सच में! ख्वाहिशों की उलझन है ही गुड़ सी मीठी, इमली सी खट्टी,
सुन्दर अभिव्यक्ति!
मत रोकिये...जो जी चाहे कर डालिए..
बहुत सुन्दर रचना..
बहुत अच्छी रचना...
हार्दिक बधाई...
बेहतरीन अंदाज़..... सुन्दर
अभिव्यक्ति........
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