कोशिश
पर्वतों से निकलती टेढ़ी मेढ़ी धारा से
मैं श्वेत निर्मल नदी सी बहुंगी
ऊँचे नीचे ,पथरीले ,रास्तों से गुज़र के
मैं समतल चलने की कोशिश करुँगी
साथ पुष्पों के कांटे भी होते हैं अक्सर
मैं पुष्प बनकर सुगन्धित करती रहूंगी
जो मसलकर तोड़ डालेगा कोई
तो वही हाथ महकाने की कोशिश करुँगी
जो रूठे मनाऊँ ,अगर फिर रूठ जाएँ
तो फिर से मानाने की कोशिश करूंगी
इतनी शक्ति मुझे दोगे जो मेरे साईं
तो सदा जोड़ने की मैं कोशिश करूंगी
मैं श्वेत निर्मल नदी सी बहुंगी
ऊँचे नीचे ,पथरीले ,रास्तों से गुज़र के
मैं समतल चलने की कोशिश करुँगी
साथ पुष्पों के कांटे भी होते हैं अक्सर
मैं पुष्प बनकर सुगन्धित करती रहूंगी
जो मसलकर तोड़ डालेगा कोई
तो वही हाथ महकाने की कोशिश करुँगी
जो रूठे मनाऊँ ,अगर फिर रूठ जाएँ
तो फिर से मानाने की कोशिश करूंगी
इतनी शक्ति मुझे दोगे जो मेरे साईं
तो सदा जोड़ने की मैं कोशिश करूंगी
3 Comments:
अनेकानेक धन्यवाद व आभार
सुंदर रचना।
गहरे अहसास।
फिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई
Post a Comment
Subscribe to Post Comments [Atom]
<< Home