एक दिन ठिठक के परिंदा बोला गगन से
मुझको भी छूने दे आसमा इस बदन से
उड़कर ऊंचा भी न पाया मै तेरा सहारा
आज मुझको चूमने दे अम्बर ,इस पवन से
है दूर तू या हाथ ये मेरे छोटे रह गए
गूम तू या साथ मेरे ,या बस तेरे छीटें रह गए
इस 'आसमा' के बस में ,पर समां पाता नहीं
क्यों नभ का होकर भी ये रिश्ते टूटे रह गए
चला हूँ छूने तुझे ,पर अम्बर दिखलाता नहीं
मैं अंजर हूँ ,ये मंजर कोई समझाता नहीं
नभ को छूने का ख्वाब न देखा होता
वो अनंत है ,हम अंत ,वो तो ठुकराता युही
ऐ मिटटी के बाशिन्ग्दों ,कर लो धरा से ही प्यार
वहाँ न गिरने का डर है ..न उंचाई अपार
धरती तो जीवन है ,भूमि है पूजन है
ऐ उडनेवाले परिंदे ,है धरती पर ही ये संसार
तू न कर ऊंचा उड़कर गगन चूमने का मलाल
तू बस बैठ निहार अम्बर को छू कर ऊंची कोई डाल
नभ न छू पाया कोई ,न कर पाया गगन से दोस्ती
है डाल ही तेरा ठिकाना ,रखती धरती ही तेरा ख़याल..
(चित्र गूगल से )