डर
यह कविता मैंने सन १९८८ में लिखी थी ..
अँधेरी रात के सायों से कितना डर लगता है
कभी भय से ,तो कभी अपनाप ह्रदय धड़कता है ..
यों तो चाँद भी होता है रात में ,
तारे भी जगमाते जिसके प्रकाश में
पर अमावस्या में चाँद भी नहीं दीखता है
अँधेरी रात के सायों से कितना डर लगता है ..
यों तो उज्ज्वल प्रकाशमय सुबह भी होती है
जब चिड़ियें चहचहाती और कोयल कूकती हैं
पर आजकल तो प्रकाश से भी डर लगता है
कभी भय से तो कभी अपनाप ह्रदय धड़कता है
सुबह के उजाले से भी कितना डर लगता है
(तस्वीर गूगल से ली है )
10 Comments:
सबसे अधिक डर तो कभी कभी खुद से लगता है |
रचना अच्छी लगी। स्वागत।
रचना अच्छी लगी। स्वागत।
dar lagnaa swaabhik hai
parmaatmaa mein vishwaas hee iskaa uttar hai
puraanee magar achhee rachna
अच्छी रचना।
वैसे 24 सालों में अब तो डर चला गया होगा.......
सचमुच उजाले एवं सुबह का डर बहुत ही खतरनाक होता है
सुन्दर अभिव्यक्ति...... सराहनीय....
नेता,कुत्ता और वेश्या
पर आजकल तो प्रकाश से भी डर लगता है.kai bar aisa hota hai jb ujala apni aankhon ko chubhta hai.bahut achcha.
हाँ ..तब की अभिव्यक्तियाँ हैं ,न जाने क्या सोच कर लिखी थी खुद याद नहीं..:)
आप सभी का धन्यवाद 'कलमदान ' पर पधारने के लिए ..
satya kaha .......sundar prastuti.
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