ता उम्र कोशिशें करते रहे की शीशा बन सकें
जो अन्दर से हैं वो बाहर भी दिख सकें
पर दिख न सका वो अक्स जो धूप था
बादलों की आगोश में जो एक तेज़ था
करते रहे मुहब्बत हम तो हमी से
सीखे न कोई गुर ,इस तकदीर से
कोई दोस्त न मिला मुकम्मल हमें
पाया सिफर ही बस इम्तेहान में
क्यों रोज़ देनी हैं खुद को ही तसल्लियाँ
क्यों छा जाती हैं दिलों पर बदलियाँ
पहचानते क्यों नही की में शीशा हूँ ,
तराशा गया हूँ में ,के मैं शीशा हूँ
बढ़ाकर के नूर एकदिन हो जाऊँगा कोहिनूर,
तब हमदर्द बनकर आओगे राहों में ज़रूर
पढता ही रहूँगा फिर भी अपना ही अक्स मैं
दीखता ही रहुंगा ,मुझी में से मैं ..
खा खा कर ठोकरे हो जाऊं चकनाचूर
दीखता ही रहूँगा हर एक कांच से भी नूर
क्यूंकि तराशा गया हूँ मैं
पर मैं एक शीशा हूँ ....
( चित्र गूगल से साभार)