Tuesday, 3 January 2012

पोंछा ..

पड़ोसन की मेहरी ने फिर पोछा सामने वाले तार पर सुखाया था..पोछा क्या था पुराने कपड़ों के चिथड़े हो गए थे फर्श पर घिसता घिसते ,फिर भी मुह के सामने पड़ते थे ..साल भर रुकी थी उसे ये बात कहने को ..और परसों कह ही दिया की ज़रा दूसरी और सुखा दिया करो ..सामने दीखते हैं तो अच्छा नहीं लगता ..
पर शायद मेहरी से ज्यादा पड़ोसन को जिद थी पोंछे के कपड़ों को वहीँ सुखाने की..
नहीं मानी ,फिर उसी तार पर उन कपड़ों को फैला देख ,पोंछे से ज्यादा मेरा मन मैला हो गया..
क्या किसे के आग्रह का यही परिणाम है..
मनुष्य के जीवन में सामाजिकता नाम की चीज़ तो जैसे लुप्त ही हो गयी है..क्या स्वयं उन्हें नहीं लगता कि किन्ही दूसरे के घर के सामने अपने पोंछे सुखाना शर्म की बात है ..पर संकीर्ण मानसिकता जन्म देती है अक्खडपन को ,अहंकार को ..
कोई बात नहीं ..
पोंछा नहीं है ,वो उनकी स्वयं की आत्मा है ,जो मैली हो कर फैली रहती है कही ऐसे वैसे तार पर ,फिर अगली  सुबह घिसे जाने के लिए..उसे आभास नहीं, कि उसके मैलेपन की वजह से लोग उसे देखना नहीं पसंद करते ..
पोंछे के कपडे तो आज भी वहीँ लटके हैं पर मैंने फिर से , पलकों को आवरण बना लिया है ..

3 Comments:

At 3 January 2012 at 22:28 , Blogger Atul Shrivastava said...

यथार्थ चित्रण।

 
At 4 January 2012 at 12:16 , Blogger चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

सराहनीय प्रस्तुति

जीवन के विभिन्न सरोकारों से जुड़ा नया ब्लॉग 'बेसुरम' और उसकी प्रथम पोस्ट 'दलितों की बारी कब आएगी राहुल ...' आपके स्वागत के लिए उत्सुक है। कृपा पूर्वक पधार कर उत्साह-वर्द्धन करें

 
At 5 January 2012 at 02:22 , Blogger डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
चर्चा मंच-749:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

 

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